संपादकीय : लड़ेंगे और जीतेंगे ही!
क्या होगा? कैसे होगा? कब होगा? होगा कि नहीं? ऐसे पेच में फंसे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की आखिरकार घोषणा हो गई है। चुनाव आयोग ने भले ही महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव की घोषणा कर बड़ा तीर चलाने का दिखावा किया हो, लेकिन पिछले दस सालों में चुनाव आयोग ने मोदी-शाह के लिए भजन मंडली की तरह ही काम किया है। महाराष्ट्र में २० नवंबर को चुनाव होंगे। २३ नवंबर को मतगणना होगी और उसके बाद नई सरकार महाराष्ट्र में विराजमान होगी, ऐसे लोकतांत्रिक प्रधान कार्यक्रम की घोषणा चुनाव आयोग ने की है। चुनाव निष्पक्ष तरीके से कराए जाएंगे, जैसा हमेशा का राग आयोग ने अलापा है। ‘ईवीएम’ में कोई भी गड़बड़ी न होने का विशेष प्रमाणपत्र भी आयोग द्वारा दिए जाने पर भाजपा और उनके घाती गुट ने निश्चित ही मुस्कुराया होगा। चुनाव लोकतंत्र का उत्सव होता है और जिस देश में सचमुच का लोकतंत्र है, वहां जनता चुनाव के जरिए अपनी सरकार चुनती है। रूस और पाकिस्तान में भी चुनाव होते हैं। उसे लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता। उन देशों में विपक्षी दल के नेता को मारकर या कैद करके चुनाव लड़ा जाता है। भारत के चुनाव आयोग ने पचास-साठ वर्षों तक चुनाव सख्ती से कराए, लेकिन पिछले दस वर्षों में यह प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से ध्वस्त हो गई है। चुनाव पैसे और धांधली से जीतने का खेल बन गया है। चुनाव आयोग के कमजोर होने का यह परिणाम है। ऐसी विकट परिस्थिति में आयोग ने महाराष्ट्र चुनाव की घोषणा कर दी। १५ अक्टूबर को चुनाव की तारीखों का एलान हो जाएगा यह महाराष्ट्र में मोदी-शाह के मिंधे को पता होगा, यह जाहिर है। इसीलिए अंतिम क्षण तक कैबिनेट बैठकें कर मिंधे सरकार मतदाताओं को खरीदने की कोशिश कर रही थी। मुंबई की पांच सड़कों पर टोल माफ कर दिया। राज्यपाल नियुक्त सात विधायकों की नियुक्ति की। इनमें धार्मिक नेता और गुरु हैं। लाडली बहन की राजनीति चल ही रही है। चुनाव प्रचार में मुफ्त योजनाओं का आश्वासन रिश्वत है, ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने फटकारते हुए कहा है, लेकिन न्यायालय की सुनता कौन है? और हमारी न्यायालय भी तो किसी की ‘जी हुजूरी’ ही कर रही है। बातें करना रामशास्त्री सिद्धातों वाले, लेकिन न्याय का पैâसला निराधार करना। अगर ऐसा नहीं होता तो कोर्ट ने संविधान को बरकरार रखते हुए विधायक की अपात्रता का पैâसला सुना दिया होता। विधानसभा भंग होने को आई। यदि नए चुनाव भी होते हैं, तो पिछले अयोग्य विधायकों के नतीजे स्वीकार नहीं किए जाते हैं और एक संविधानेतर सरकार चलती रहती है। चुनाव आयोग भी कहां स्वतंत्र सिद्धांतोंवाला रह गया? शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और उनके पारंपरिक चिह्नों को घातियों के हाथों में सौंपकर ‘चुनाव आयोग’ नामक कौवा निष्पक्षता की ही कांव-कांव कर रहा है। चोरों का समर्थन करने वाली ऐसी संस्था और लोगों से महाराष्ट्र की जनता को क्या अपेक्षा करनी चाहिए? इन लोगों ने लोकतंत्र के सारे नियमों को कूड़े में डाल दिया है। जजों के बेटों ने लंदन-अमेरिका में ३००-५०० करोड़ के ‘विला’ खरीदे हैं, वो किस जोर पर? लोकतंत्र और न्याय की हत्या करके ही यह नया ऐश शुरू है और ये लोग नैतिकता पर प्रवचन झाड़ते हैं। दिल्ली के बोगस रामशास्त्री इस बात से चिंतित हैं कि इतिहास उनके काम का मूल्यांकन वैâसे करेगा। सुप्रीम कोर्ट संविधान और लोकतंत्र का संरक्षक होता है, लेकिन यहां दस साल से बाड़ ही खेत को खाती रही और इस वजह से चोरों की मौज हो गई। हरियाणा के विधानसभा चुनाव को चुनाव वैâसे कहा जाए, ऐसा सवाल उपस्थित करनेवाले घोटाले वहां सामने आए हैं, जिनमें ‘ईवीएम’ भी है, लेकिन हमारा चुनाव आयोग कहता है, सब कुछ ऑलवेल है और चुनाव आयोग के इस राग पर ताल बजाने का काम हमारा न्यायालय करता है। महाराष्ट्र में चुनाव ऐसे कोहरे में हो रहे हैं। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की घोषणा होने से एक रात पहले मिंधे सरकार ने १५० उम्मीदवारों में से प्रत्येक को १५ करोड़ रुपए बांटे और यह पैसा जहां-तहां पुलिस बंदोबस्त के बीच पहुंचाया गया। अगर ये बातें चुनाव आयोग तक पहुंच भी जाएं तो ऊपर से लेकर नीचे तक सारी संवैधानिक संस्थाएं लाचार और मिंधेमय होने के कारण न्याय मांगें भी तो किससे? महाराष्ट्र राज्य का इतना और ऐसा अध:पतन कभी नहीं हुआ था, लेकिन अध:पतन करनेवालों की ही फिलहाल चलती और बोलती है। अगले महीने में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव होंगे और वे मौजूदा भ्रष्ट और असंवैधानिक सरकार के खिलाफ जोश में लड़े जाएंगे। महाराष्ट्र राज्य की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है और मर्हाठी जनता जोश में आ गई है। इसलिए राज्य में सत्ता परिवर्तन के लिए ही ये चुनाव हो रहे हैं। चुनाव आयोग ने तारीखों का एलान कर दिया है। दिल्लीवालों की सुविधा देखकर ही अब चुनाव की तारीखों का एलान किया जाता है। ऐसा महाराष्ट्र में भी हुआ। युद्ध का बिगुल बज चुका है। महाराष्ट्र के लिए यह लड़ाई जीतो या मरो की है, लेकिन हारने का नाम ही न लें। लड़ेंगे और जीतेंगे। जीतना ही होगा!