कहा जा रहा है कि जब यह अध्यक्ष बने थे तब बच्चे साइकिल से स्कूल जाते थे, और अब वही बच्चे इलेक्ट्रिक स्कूटर से नौकरी पर जा रहे हैं — लेकिन साहब अब भी अपनी कुर्सी पर विराजमान हैं।
दल के कार्यकर्ताओं ने कई बार कोशिश की कि नया नेतृत्व उभरे, लेकिन हर बार अध्यक्ष जी ने मुस्कुराकर कहा, “अभी संगठन को मेरी ज़रूरत है।” संगठन है कि हर बार ज़रूरतमंद ही निकल आता है!
बताया जा रहा है कि सेवा दल की बैठकों में अब “सदस्य” कम और “साक्षी” ज़्यादा होते हैं। नई पीढ़ी जब पूछती है, “अध्यक्ष कब बदलेंगे?” तो वरिष्ठ सदस्य आंखें उठाकर कहते हैं, “बेटा, ये पद नहीं, परंपरा है!”
कुछ लोग तो इसे “सेवा दल” नहीं, “सेवा जीवी दल” कहने लगे हैं। और अध्यक्ष जी? वो हर साल अपनी 15वीं वर्षगाँठ मनाकर खुद को “लोकतंत्र का दीपक” घोषित कर देते हैं।
सूत्रों की मानें तो अगली योजना है: अध्यक्ष जी की प्रतिमा सेवा दल कार्यालय के बाहर लगाने की।
क्योंकि नेता तो आएंगे-जाएंगे, लेकिन अध्यक्ष जी… वो अमर हैं।


