कानून 1980 के दायरे में आने वाली वन भूमि मान लिया.
अब तीनों परिभाषाओं को भी अगर वन भूमि माने जाने तक सीमित कर देते तो ठीक था, लेकिन राज्य का वन प्रशासन हालांकि असीमांकित वन भूमि, नारंगी वन भूमि और समझे गए वन के रूप में जो वन भूमि है उसे न केवल वन भूमि करार दे रहे हैं बल्कि इन भूमियों पर वर्किंग प्लान में शामिल करते हुए कई पीढ़ियों से काबिज लोगों को अतिक्रमणकारी बताकर न्यायालय के सामने पेश भी कर रहे .
प्रशासनिक लापरवाही का खामियाजा भुगतते समुदाय
वन अधिनियम 1927 के तहत किसी वन को आरक्षित वन के रूप में घोषित करने के लिए धारा 4 से लेकर धारा 19 तक की चरणबद्ध प्रक्रिया पूरी करने की व्यवस्था है, जो बमुश्किल ही किसी वन को आरक्षित वन घोषित करने में अपनाई गयी हो बल्कि केवल धारा -4 के तहत आरक्षित वन बनाने की अधिसूचना जारी करने के साथ ही उसे आरक्षित वन मान लिया गया.
चूंकि कानून के अनुरूप पूरी प्रक्रिया नहीं अपनाई गयी, इसलिए समुदायों के निस्तारी अधिकार, उनके वन संसाधनों के अधिकार, पर्यावास के अधिकार और व्यक्तिगत निस्तार के अधिकार जबरन खारिज मान लिए गए. वन अधिकार मान्यता कानून इन्हीं अधिकारों को मान्यता देने और दावेदारों के सुपुर्द किए जाने के लिए लाया गया था.
वन भूमि की परिभाषा और आज़ादी के बाद हुई विवादास्पद कार्यवाहियों का ऐसा लेखा-जोखा हम मध्य प्रदेश के उदाहरण से समझ सकते हैं.
एक और रोचक बात सामने आती है, सन 1965 से 1975 तक बहुत सी ऐसी ज़मीनें वन विभाग ने, वन अधिनियम 1927 की धारा -34 के तहत डीनोटोफ़ाई की थीं जिन्हें वन बनाने के लिए उचित नहीं माना गया या जहां सामुदायिक निस्तार थे और जिन ज़मीनों को भूमिहीनों को वितरित किया जाना जिसके लिए 1950 में भूमि-सुधार किए गए थे.
ये सब ऐसे तथ्य हैं जिन्हें मध्य प्रदेश सरकार स्वीकार करती है और प्रशासनिक स्तर पर यह मानती है कि इस मसले से जुड़े दो महत्वपूर्ण विभागों यानी वन विभाग और राजस्व विभाग ने अपने अभिलेख दुरुस्त नहीं किए और जिसका खामियाजा समुदायों को भुगतना पड़ा.
2015 में मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव ने दोनों विभागों को पत्र लिखकर इस मामले में आपसी समन्वय के साथ अभिलेख दुरुस्त करने के आदेश भी दिये लेकिन बीते दस सालों में इस दिशा में कुछ भी प्रगति नहीं हुई.
इसी पत्र में राज्य सचिव ने माना कि राज्य की लगभग 1 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर वन विभाग का अवैध कब्जा है. अब इस आंकड़े को अगर मध्य प्रदेश सरकार द्वारा एनजीटी को दिये प्रतिवेदन के आंकड़ों से मेल करके देखें तो आंकड़ों की यह बाजीगरी समझ में आ सकती है.
मध्य प्रदेश सरकार ने एनजीटी को दिये प्रतिवेदन में यह माना कि 5,460.9 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र पर अतिक्रमण है.
एक और दिलचस्प और हास्यास्पद तर्क मध्य प्रदेश के वन विभाग की तरफ से सामने आता है- 1980 के पहले से ही जलाशयों की डूब में आयी वन भूमि, सड़कों, नहरों आदि में उपयोग में लायी जा रही वन भूमि को भी आज तक वन भूमि माना जा रहा है क्योंकि इन ज़मीनों का दी-नोटिफिकेशन नहीं हुआ बल्कि इन्हीं ज़मीनों पर अतिक्रमण भी बताया जा रहा है.
अब मध्य प्रदेश सरकार को यह बताना चाहिए कि ये 5,406.9 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र कौन सा है जिस पर वन विभाग की चाक चौबन्द निगरानी के बाद भी अतिक्रमण कर लिया गया?
इस अतिक्रमण का स्वरूप क्या है? अतिक्रमणकारी कौन हैं? और राज्य सरकारों ने उन पर क्या कार्यवाही की?
क्या राज्य सरकार इन आंकड़ों में उन ज़मीनों को भी शामिल मान रही हैं जो वन अधिकार मान्यता कानून के तहत मान्य की जाना है. क्योंकि वन अधिकार मान्यता कानून तो केवल वन भूमि पर ही लागू होता है.
20 जुलाई 2009 को वन मुख्यालय भोपाल ने एक पत्र तमाम वन मंडलों को भेजा और वन विभाग द्वारा निजी भूमियों को अपने वर्किंग प्लान में शामिल करने के बावत जानकारी मांगी. जिसे मात्र 63 वन मंडलों ने विभाग को सौंपी.
इस रिपोर्ट में यह तथ्य उद्घाटित हुआ कि मात्र 63 वन मंडलों में 31707 हेक्टेयर ज़मीन ऐसी है, जो राजस्व रिकार्ड में दर्ज़ है, जो भू-स्वामी हक़ की ज़मीन है जिस ज़मीन पर वन विभाग का नियंत्रण है. क्या इसे अवैध कब्जा या अतिक्रमण नहीं
अन्याय को जारी रखने की कवायद से नहीं होगा निराकरण
अगर वन भूमि पर लागू होने वाले इस कानून का क्रियान्वयन अभी हुआ ही नहीं है तो इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा गया है कि इतने बड़े वन क्षेत्र पर अतिक्रमण हुआ है?
इन प्रतिवेदनों से यह भी स्पष्ट नहीं हो रहा है कि ये अतिक्रमण किस अवधि में हुआ है. क्या यह वन अधिकार मान्यता कानून के लागू होने के बाद हुआ है या पहले से है?
अगर यह अतिक्रमण कानून आने से पहले का है तो इसे तब तक अतिक्रमण कैसे माना जा सकता है, जब तक कि सभी संभावित दावेदार अपने दावे नहीं भरते और उन दावों का समुचित निराकरण नहीं हो जाता.
सवाल और भी हैं लेकिन इनके जवाब उन्हीं ऐतिहासिक गलतियों में छिपे हैं, जो आज़ादी के बाद से निरंतर जारी है और जब भी कोई पहल लोगों और समुदायों के उनके वास्तविक हक़ देने की आती है, सरकारें अपने आंकड़ों के पर्दों में उन सभी संभावनाओं पर पानी फेर देती हैं.
जंगल पर अतिक्रमण की ख़बर और एनजीटी का मुकदमा, इसी अन्याय को जारी रखने की एक कोशिश है.


